तरंगित हो

तरंगित हो

प्रकम्पित हो

नभ गर्जन मन गुंजा रहा है अब तो तरंगित हो

भूकम्प नगों को हिला रहा है मेरी भांति प्रकम्पित हो

श्वास दीपिका बुझी कहां अभी कहां तुम हारे

हाहारव पौरुष बरसाए तुम बरसाओ अंगारे

ऐसे न व्यर्थ प्रहार करो, ठहरो शत्रु पहचानो

संख्या क्या है कहां छिपे हैं यह मुझसे तुम जानो

सोचो तनिक ये मन में मित्र क्यों कटक बना विपदा आई

कारण भी एक है निज हित के परम शत्रु हो तुम भाई

अच्छा होगा इससे पहले कि समर में जा हुकार भरो

अंतरतम् के तमस मूल वे यातुधान संहार करो

मैं तब तक मन वन के अश्व को विवश करूं अपने पथ पर

अंतिम अमृत का यत्न करूं वारुणी न लूं सागर मथ कर

सुधा सार मिल जाने पर कुछ ऐसा उद्योग करूं

मानवता को अर्पित कर मैं सहर्ष विष-भोग करूं

ना जीवन की व्यथा विवशता रोक सके गायन मेरा

सारी धरती के तप्त हृदय ही बन जाएं आयन मेरा

बल की मेरी महा धारणा सामर्थ्यवान साकार करें

बल तिनके को शीश झुका पर्वत पर ध्वंस प्रहार करे

तब वीरों के लहू से रणभूमि रंजित अतिरंजित हो

तरंगित हो

प्रकम्पित हो

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