हमारी निर्बलता का मूल कारण क्या है?

सबसे बड़ा धर्म क्या है और सबसे बड़ा पाप क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्र कहता है कि परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है और अपने हित के बारे में सोचना सबसे बड़ा अधर्म है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस में कहा है: परहित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहि अधमाई। दूसरे व्यक्ति के साथ वैसा व्यवहार मत कीजिए, जो आपको अपने साथ किया जाना पसंद न हो। हम इस सूक्ति को प्रायः भूल जाते हैं। हमें लगता है कि हम ही इस सृष्टि के सबसे वंचित प्राणी हैं जबकि सत्य यह है कि अपने साथ होने पर जो कुछ हमें घोर अन्याय लगता है, अन्य के साथ वही करते हुए हमें आनन्द आता है। 
लंदन में शिक्षा ग्रहण करते हुए गांधी जी को इस बात का आभास हो गया कि हमारी परतंत्रता का कारण क्या है?
जब एक गोरे नाई ने काले मोहनदास के बाल काटने से मना कर दिया तो उन्होंने सोचा कि यही भेद भाव तो हम
अपने देश में भी करते हैं। ब्राह्मण से लेकर स्वपच तक सब अपने से निचले स्तर के लोगों के साथ वही व्यवहार करते हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां भेदभाव है और वहां नहीं है, पर भेदभाव के परिमाण में बहुत अंतर है। ब्रिटिश आधीन अमेरिका की विद्रोही सेना में भी भेदभाव था पर अंग्रेजों से कम, इसलिए वे जयी हुए। हमारी हर पराजय का कारण हमारे समाज की संरचना की दरारें है। जिस दिन हम हर प्रकार के भेद भाव को भुला कर कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था को मान्यता दे देंगे, उस दिन से हमारा उत्थान आरंभ हो जाएगा। अपने तात्कालिक लाभ के लिए अपने आप को एक जाति का बताकर कुछ समय के लिए प्रसन्न हो सकते हैं, पर लंबे समय में इससे हमारी कौम का अहित होगा और हमारी जाति और स्वयं हमारी पीढ़ियों का भी।
अतः यह सोचने के साथ कि हमारे साथ भेद भाव तो नहीं हो रहा है, हमें यह भी सोचना चाहिए कि कहीं हम भी तो किसी के साथ वैसा ही व्यवहार तो नहीं कर रहे हैं। सुप्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ऑरवेल के अनुसार जो व्यक्ति दूसरों के मूल अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकता, उसे अपने मूल अधिकारों की मांग करने का कोई अधिकार नहीं है।

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